Saturday, September 21, 2013

एक शख्स का चेहरा...


मैं देख रही हूँ एक शख्स का चेहरा 
जिसकी आंखे, नाक और होंठ 
बिलकुल मेरे जैसे हैं 
लेकिन 
बहुत अनबूझा जान पड़ता है वो 
जैसे किसी माचिस के पूरा जल जाने पर 
उसका अक्स बाकी रह गया हो 
सिकुड़ा , काला , विभत्स 
मेरे चेहरे से गायब हूँ मैं उसी तरह 
और बच गयी है एक परछाई 
डर, उलझन और कश्मकश की 
और नए-नए घाव जैसा 
रिस रहा है सम्पूर्णता का भ्रम 
हर बिखरे टुकड़े से 
बन रहे हैं असंख्य नए चेहरे , अनजान 
हँसते हुए मुझपर , लड़ते हुए अपने ही बिम्ब से 
और इस हो-हल्ले में उँगलियाँ बांधे 
मैं खोज रही हूँ अपना चेहरा
छू - छूकर …