मैंने कब शब्दों में गुंथकर ,
मीठी सी कोई पंक्ति रचकर,
दुनिया के टेढ़े दांवों को,
सीधे से बतलाया माँ ??
मैंने कब कातर नज़रों से
या सूखे कंपते अधरों से
अपने मन का मर्म तुम्हें
जैसा वैसे दिखलाया माँ ??
मै ही सब कविताओं में थी
किस्सों और आशाओं में थी
जाने कैसे जान गयी तुम
मैंने कब दर्शाया माँ ??
आँखों का अनदेखा पानी
मेरे मन की अकह कहानी
तुमने कैसे पूरी सुन ली
मैंने कब समझाया माँ ??