सुनो, मिल जाना तुम।
मैं बिना बताये किसी दिन
तुम्हारे मुहल्ले से गुज़रूं
तुम्हारे मुहल्ले से गुज़रूं
और तुम्हारा ्दरवाज़ा खटखटाये बगैर
बहुत ऊंची आवाज़ में बोलते हुए
धीमे-धीमे पग बढाऊं
तो अपनी छत पर, चौराहे पर,नुक्कड़ पर,
कहीं भी, कहीं तो,
दिख जाना तुम,
सुनो, मिल जाना तुम।
तुम्हारे दोस्त के भाई की शादी है,
शायद आओ तुम
मैं हनुमान मन्दिर जा रहीं हूं ,
कऱीब है न तुम्हारे घर के,
शायद आओ तुम
वो सब भी आ रहे हैं
जो प्रिय हैं तुम्हें,
शायद आओ तुम
मैं दिन भर में कई जगह जाती हूँ,
कहीं भी, कहीं तो,
दिख जाना तुम,
सुनो, मिल जाना तुम।
तुम्हारी यादों को
प्लास्टिक की तरह समेटा है मैंने
एक बूंद भी नहीं रिसती,
और पुरानी भी नहीं पड़ती,
किसी शहरी मकान के स्टोर रूम जैसे अपने मन में
कभी उनींदें भड़भड़ाते हुए पहुँचुं
तो दिख जाना तुम,
सुनो, मिल जाना तुम।