Thursday, October 24, 2013

मेरी बद्दुआ….

इक शख्स को बद्दुआ दी थी मैने इक बार,
उस रात मैं तकिया भर रोई थी...
फ़िर बहुत सारी सूखी सुबहों के बीच
भूल गयी मैं,
नाखून से उस रात फाडा हुआ
चादर का कोना...
लेकिन समय नहीं भूला
और नहीं भूली निर्जीव कहलाती कोई भी वस्तु
जिस पर एक टूटी फूटी सड़क बनाई थी मैंने उस रात...
आज ही एक डाक से 
आया है उसके पूरे होने का संदेसा
और स्याही के थप्पडों से नींद खुली है तो देख रही हूँ
साथ में संलग्न की गयी है
मेरी बद्दुआ….

4 comments:

  1. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति .. आपकी इस रचना के लिंक की प्रविष्टी सोमवार (28.10.2013) को ब्लॉग प्रसारण पर की जाएगी, ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया पधारें कर औरों की रचनाएँ भी पढ़ें एवं कमेंट्स अवश्य दे .. वर्ड वेरिफिकेसन हटा लें कमेन्ट देना मुश्किल होता है ..

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  2. bahut bahut shukriya.. :) sujhav ke lie dhanyawad... :)

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  3. सारा रूप विधान रूपक तत्व कविता का अभिनव है। अभिव्यक्ति का एक उफान है यह रचना।

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  4. सारा रूप विधान रूपक तत्व कविता का अभिनव है। अभिव्यक्ति का एक उफान है यह रचना।

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