Sunday, October 20, 2013

मैं यह कविता लिख रही हूँ ...

मैं यह कविता लिख रही हूँ 
क्योंकि मैं कह नहीं सकती तुमसे 
की तुम्हारे अलसाये सपनों को 
रात-रात भर जाग कर संवारती हूँ मैं 
सब के लिए माँग लेने के बाद 
तुम्हारे लिये अलग से धूप जलाती हूँ मैं 
पिछवाड़े वाले आँगन के नल जैसे 
दिनभर रिस्ते रहते हैं 
तुम्हारे सपने 
डूबते उबरते 
तुम्हारी आँखे 
उनका पत्थरपन 
और मैं पुरानी धोती की चिंदियों से 
बाँध-बाँध कर 
कोशिश करती रहती हूँ 
कि तुम्हें मेरी आँखों से दिख जाये 
तुम्हारी रूह 
सिसकती धूप जैसी 
तुम्हारा मन 
पहाड़ी नदियों जैसा 
और तुम 
देख सको खुद को जैसे मैं देखती हूँ तुम्हें 
खूबसूरत और सम्पूर्ण |  

4 comments: